Recents in Beach

जैविक विकास


जैविक विकास
जैविक विकाश यह विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत जीवधरियों की उत्‍पत्ति उनकी शारीरिक संरचना में परिवर्तन और विकास का अध्‍ययन किया जाता है।
जैव विकास की संकल्‍पना का जनक ग्रीस(यूनान) एम्‍पीडोक्‍लीज को माना जाता है। लेकिन जैव विकास की अवधारणा को तार्किक आधार सबसे पहले फ्रॉस के विचारक लैमार्क ने दिया इसके सिद्धांत को लैमार्कवाद कहा गया लैमार्कवाद(फ्रॉस) - लैमार्क ने 1809 में अपनी पुस्‍तक फिलॉसफी जूलोजिक में जैवविकास को तार्किक और वैज्ञानिक रूप में प्रस्‍तुत किया उन्‍होने जिर्राफ पर अपना अध्‍ययन किया था और जैव विकास को निम्‍न सिद्धांतों के द्वारा समझाया
• अंगों का प्रयोग एवं  अनुप्रयोग
• उपर्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत
• वातावरण का प्रभाव
लैमार्क के अनुसार जिर्राफ के पूर्वज भेड़ बकरी थे लेकिन  वातावरण में परिवर्तन के कारण जमीन की घास समाप्‍त हो गई तो इन जीवो ने जीवित रहने के लिए पेड़ पौधों की पत्तियों को खाना शुरू किया और अपने अगले अंगों का प्रयोग जारी रखा जिससे एक नई जाति की उत्‍पत्ति हुई लैमार्क के अनुसार जिन अंगों का प्रयोग नहीं होता वे विलुप्‍त हो जाते है। लैमार्क ने माना कि यदि किसी जीव की बाहरी संरचना में परिवर्तन हो जाए तो यह  उसकी संतानों में भी पहुँचता है इसी को उपार्जित लक्षणों की वंशागति कहते हैं। लैमार्क के इस सिद्धांत को डार्विन एवं बीजमैन ने इस सिद्धांत को खारिज कर दिया डार्विन के अनुसार यदि लैमार्क के सिद्धांत को माना जाए तो पहलवान का बच्‍चा भी पहलवान ही पैदा होना चाहिए, अन्‍धे माता-पिता के बच्‍चे अंधे पैदा होने चाहिए बीजमैन ने 22 पीढियों तक चुहों की पूछ काटी लेकिन अगली पीढी में पुन: पूछ वाला चुहा आ गया
डार्विनवाद – डार्विन इग्‍लैण्‍ड के वैज्ञानिक थे इन्‍होने रसेल वैलेस(इग्‍लैण्‍ड) के साथ मिलकर जैव विकास को 1859 में अपनी पुस्‍तक ‘ऑरिजिन ऑफ स्‍पीसीज’ में ‘प्रकिृतिवरण वाद’ के सिद्धांत द्वारा ‘अनुवाशिंकता’ के आधार पर समझाया था डार्विन के अनुसार केवल वे ही लक्षण संतान में पहुँचते है। जिनके जर्म प्‍लस (जीन) में परिवर्तन होता है। डार्विन ने बीगल जहाज पर विश्‍व भ्रमण कें दौरान निम्‍नलिखित सिद्धांतों के आधार पर समझाया
• जीवन संघर्ष का सिद्धांत ( भोजन, आवास)
• योग्‍यता की उत्‍तर जीविता
• प्राकृतिक वरण वाद
• जीवो में संतान  उत्‍पन्‍न करने की अपार क्षमता होती है।
उत्‍परिवर्तन वाद -  यह सिद्धांत हॉलैण्‍ड के विचारक ह्यूगोडी-ब्रीज के द्वारा दिया गया इनके  अनुसार यदि किसी जीव के जीन में अचानक परिवर्तन हो जाए तो एक नई जीव और जाति की उत्‍पत्ति हो जाती है।
पारिस्थितिकीय (Ecology)
Ecology शब्‍द का का सबसे पहले रिएटर के द्वारा दिया गया थ्‍ज्ञा लेकिन इसे  व्‍यवस्थित आधार पर अर्नेस्‍ट हेगल ने दिया इसलिए अर्नेस्‍ट हैगल को इकोलॉजी (Ecology)  का जनक कहते हैं। जबकि पपरिस्थितिकीय इकोसिस्‍टम नाम ऑंसले के द्वारा दिया गया थ्‍ज्ञा इसके अंतर्गत जीव धारियों और पर्यावरण के बीच संबंधों का अध्‍ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत तीन मुख्‍य घटक होते हैं। (उत्‍पादक, उपभोक्‍ता, अपघटक)
उत्‍पादक:- हरे पेड़-पौधें को उत्‍पदक कहते हैं जो अपना भोजन स्‍वयं बनाते हैं।
उपभोक्‍ता:- उपभोक्‍ता तीन प्रकार के होते हैं। 1. प्राथमिक 2. द्वितीयक 3. तृतीयक
1.       प्राथमिक :- इसके अंतर्गत ऐसे उपभोक्‍ता आते हैं जो उत्‍पादक (हरे पेड़-पौधें) का सेवन करते हैं। जैसे- हिरण, गाय, बकरी, खरगोश, भेड़, बकरी आदि (इन्‍हें शाकाहारी उपभोक्‍ता कहते हैं।)
2.       द्तीयक :- इसके अंतर्गत ऐसे उपभोक्‍ता आते हैं जो उत्‍पादक और प्राथमिक उपभोक्‍ता दोनों को खाते हैं। जैसे- मनुष्‍य, भेडिया, लौमडी, सर्प आदि (इन्‍हें सर्वाहारी उपभोक्‍ता कहते हैं।)
3.       तृतीयक :- इसके अंतर्गत ऐसे उपभोक्‍ता आते हैं जो प्राथमिक और द्तीयक उपभोक्‍ता दोनों को खाते हैं। (इन्‍हें मॉसाहारी उपभेक्‍ता कहते हैं।)  जैसे- शेर, बाघ, बाज आदि
अपघटक :- इसमें ऐसे सूक्ष्‍म जीव आते हैं जो उत्‍पादक और उपभोक्‍ता दोनों को नष्‍ट कर दोनों को मिट्टी में मिला देते हैं। जैसे- जीवाणु, विषाणु, कवक आदि
Plant morphology
पादप अकारिकी
इसको वाह्य रूप में निम्‍न भागों में बाटा जा सकता है।
जड़ (Root) :- जड़ पेड़ पौधों का वह अवरोही भाग है जो सूर्य के प्रकाश के विपरीत(प्रकाश नकारात्‍मक) पानी की खोज में गुरूत्‍व की ओर ( गुरूत्‍व सकारात्‍मक) गमन करता है। जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहूँचता है इसलिए सफेद या मटमैली रहती है।  
दलहनी पेड़ पौधों(फलीदार पैधे)  की जड़ में राइजोबियम पाया जाता है जो नाइट्रोजन स्‍थरीकरण की प्रक्रिया के द्वारा  मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा को  बड़ा देता हे पेड़-पौधें नाइट्रोजन को नाइटेट  या नाइट्राटड के रूप में ग्रहण करते हैं।  जड़ पैधें के मूलांकुर भाग से विकशित होती है।
इसे दो भागों में बाटा गया है।
1.       मसूला जड़ (tap Root) :-  यह बीज के मुलांकुर भाग से विकशित होती है इससे पार्श्‍व शाखाएं निकलती है।
2.       अपस्‍थानिक जड़ (Adventitious Root) :- यह म ुलांकुर के अलावा बीज के अन्‍य भागों से विकशित होती है इससे पार्श्‍व शाचाए नहीं निकलती है।
जड़ के रूपांतरण
a.       गाजर                     Conide
b.      मूली          -           Foji form
c.       शलजम, चुकंदर, -             Napi form
d.      अंगूर          -             Mohili form
e.      आम हल्‍दी     -
f.        सकरकंद       -
जाइलम :- इसका कार्य जड़ों में उपस्थित जल, खनिज आदि को पत्तियों तक पहुँचाना है अर्थात जाइलम पानी को गुरूत्‍व के विपरीत जड़ से पत्तियों तक पहुँचाता है अर्थात जाइलम पानी को गुरूत्‍व के विपरीत पत्तियों तक पहुँचाता उसे रसारोहण कहते हैं।
फ्लोएम  :-  इसका कार्य पत्तियों के द्वारा बनाए गए भोजन को पौंधे के विभिन्‍न भागकों में पहुँचाना है।
नोट:- जाइलम पेड़-पौधें में केशिकत्‍व का उदाहरण है।
तना (stam) :-  यह पौधे का अपरोही भाग है। जो सूर्य के प्रकाश की ओर (प्रकाश सकारात्‍मक) गुरूत्‍व के विपरीत (गकुरूत्‍व नकारात्‍मक) गमन करता हे। इसका  निर्माण प्रांकुर(plumule) से होता है
पौंधे के तने भाग में कैम्बियम होता हे। इसकी वृद्धि से ही बलय बनता है इन बलयों की संख्‍या को गिनकर वृक्ष की आयु को ज्ञात किया जाता है। इस विधि को डेट्रोक्रोनो लॉजी कहते हैं। (इस‍ एक वर्ष में एक वलय का निर्माण होता है)
भारतीय बनस्‍पती वैज्ञानी जे.सेी. बोस (जगदीश चन्‍द्र बोस) ने पैउ़ पौधें की वृद्धि को ज्ञात करने के लिए एक यंत्र का अविष्‍कार किया जिसे क्रेस्‍कोग्राफ कहते हैं।
तने के रूपांतरण:-  आलू(कंद), प्‍याज, लहसुन, हल्‍दी, अदरक, अरबी, केशर, केला
पत्तियां (Leef) :- हरी पत्तियों में क्‍लोरोफल होता है। जो सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में भोजन का निर्माण करता है। पत्तियों के अंन्‍दर  धगेनुमा संरचना होती है। जिन्‍हे रन्‍ध्र कहते हैं।
वाष्‍पोत्‍सर्जन – पौधे के बाहरी भाग से पानी का वाष्‍प के रूप में उड़ना वाष्‍पोत्‍सर्जन कहलाता है यह प्रक्रिया पत्तियों में पाये जाने वाले  रंन्‍ध्र के खुलने एवं बंद होने के कारण होती है।
विन्‍दु स्‍त्राव – कुछ एक पौधें जैसे गेहूँ , धान, जौ, आदि की पत्तियो के किनारे से सुबह-शाम पानी का  बूद-बूद गिरना ही बिन्‍दु स्‍त्राव कहलाता है। इसका कारण जड़ दाब होता है
पत्‍ती के रूपांतरण- नागफनी, एलोवेरा, हरीमटर
पुष्‍प:- यह पौधे का जनलांग होता है इसे दो भागों में विभक्‍त किया गया है
 जननांग 1. नर जननांग जिसमें (पुमंग-पुंकंशर-ऐंथर) 2. मादा जननांग जिसमें ( जायांग-वर्तिका-वर्तिकाग्र) होते हैं
परागण निम्‍न प्रकार से होता है
जलपरागण, वायु परागण, कीट परागण, जंन्‍तु परागण आदि
पुष्‍प के निर्माण में चार घटक भाग हैं 1. बाह्य दल पुंज 2. दल पुंज 3. पुमंग 4. जायांग
फल :- फल का निर्माण अण्‍डाशय से होता हे जब अंण्‍डाशय परिपक्‍व होता हे। तो उसकी दीवार को फल भित्‍ती कहते है। फल भित्‍त तीन प्रकार की होती है।
1.        वाह्य फल भित्‍ती 2. मध्‍यफल भित्‍ती 3. अन्‍त: फल भित्‍ती                 
 फलों को दो भागों में वाटा गया है।
1.        असत्‍य फल:- ऐसे फल जिनका अण्‍डाशय अलावा पुष्‍प के अन्‍य भागों से भी होता है। उन्‍हें असत्‍य फल कहते हैं।
जैसे- सेब

2.        सत्‍य फल :- जब किसी पुष्‍प के अण्‍डाशय से एक ही फल बनता है। तो उसे सत्‍य फल कहते हैं। हैं। जैसे से होता है जैसे- नारियल, आम आदि
फलों को  तीन भगों मे बाटा गया है के
1.        सरल फल:- जब किसी पुष्‍प के अण्‍डाशय से केवल एक ही फल बनता है। तो उसे सरल फल कहते हैं। तो उसे सरल फल कहते हैं। इसके अंतर्गत निम्‍न‍िलिखत प्रकार के फल आते हैं
(a)    Drup –  आम, नारियल, सुपाड़ी  आदि
(b)   Pepo–  खरबूजा, तरबूज, खीरा, ककड़ी, लौकी आदि
(c)    Beroy –  टमाटर, अमरूद, खीरा, ककड़ी लौकी आदि
(d)   Pome सेब, नाशपाती,
(e)   Nut–  लीची, काजू , सिघाडा आदि
2.        समूह फल :- जब एक अण्‍डाशय से अलग-2 फल बने लेकिन वे समूह के रूप में रहे तो उन्‍हें समूह फल कहते हें। जैसे- स्‍ट्रावेरी, रसभरी, शरीफा
3.        संग्रथिल फल:- जब सम्‍पूण पुष्‍प से केवल  एक ही फल बनता है। तो उसे संग्रथिल फल कहते हैं। जैसे – कटहल, सहतूत, अन्‍नानास, अंजीर आदि
फल एवं फलों के खाने योग्‍य  भाग
              फल                                         खाने योग्‍य भाग
              लीची                                        एरिल
              नाशपाती, आम, पपीता                          मध्‍य फल भित्‍ती
              अमरूद, अंगूर टमाटर                           फल भित्‍ती
              नारियल , गंहूँ                                 भ्रूणपोष
              मूंगफली, काजू                                 बीज पत्र
नोट:- ऐसे फल जो बिना निशेचल के अण्‍डाशय से फल का निर्मण करते हैं। उन्‍हें अनिशेचित कहते हैं। अधिकांश ऐसे फल बीज रहित होते हैं। जैसे – अंगूर, नारंगी, पपीता, अन्‍नानाश आदि

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ